SANJAY MAKHIJANI
People, Place & Beyond

The pursuit of happiness
vs.
the happiness of pursuit.
आरज़ू और हासिल के बीच कहीं
हर किसी के लिए आरज़ू और हासिल के बीच शायद एक पुल होता है। जीवन के अलग-अलग पड़ावों पर हर कोई अपने आप को उस पुल के अलग-अलग बिन्दुओं पर पाता है – कभी हासिल तो कभी आरज़ूओं के ज़्यादा करीब। मेरे जीवन के इस पड़ाव पर मैं खुद को इस पुल के ठीक बीच में खड़ा हुआ पाता हूँ। इस बिन्दु को अगर एक नाम देना हो, तो इसे “द्वंद” कहा जा सकता है। द्वंद के इस बिन्दु पर अक्सर एक घना कोहरा छाया रहता है।
समय के साथ कई आरजूएँ अपने छोर से निकल कर हासिल वाले छोर पर आ गई हैं, लेकिन साथ-साथ दूसरे छोर पर नई आरजूएँ भी आती रही हैं। इन तरह, दोनों सिरों के बीच हमेशा एक संतुलन रहा है। शायद इस संतुलन की वजह से ही यह पुल स्थिर है। वरना न ये पुल होता, न ही इस पर द्वंद का ये बिन्दु होता और न ही मैं। तब मैं कहाँ होता? ये एक अलग विषय है।
फिलहाल, आरज़ू और हासिल के बीच के इस पुल के कोहरे से ढंके इस बिन्दु पर खड़ा, कभी इस ओर तो कभी उस ओर देखता हुआ मैं, इस पुल पर अपना सही स्थान पहचानने की जद्दोजहद में हूँ। जद्दोजहद ये जानने की है कि कब मैं हासिल के ज़्यादा करीब हूँ और कब आरजूओं के। इस जद्दोजहद के पीछे छुपा हुआ एक सवाल यह भी है कि क्या मैं इन दोनों में से किसी एक छोर पर जाकर वहीं का होकर रहना चाहता हूँ? कभी हासिल के छोर की ओर आगे बढ़ते हुए तो कभी आरजूओं के सिरे पर नई संभावनाओं को ठहरता देखकर, जीवन रूपी इस पुल पर अपना सही स्थान तलाशने की इस जद्दोजहद का अब मैं अभ्यस्थ हो रहा हूँ।
अभ्यस्थ होना - जब तक हासिल और आरजूओं के बीच का ये पुल, इसके आस-पास पसरे कोहरे में घुल कर गुम नहीं हो जाता। शायद यही इस पुल पर होने का औचित्य भी है।