SANJAY MAKHIJANI
People, Place & Beyond

Amidst the relentless pursuit that dominates our thoughts and actions, there exists a quiet yet persistent inner conflict - the struggle between contentment and hustle, between aspiration and tranquility. Presented here is an attempt to put this in a first-person narrative.
‘प्रतिबिंब / व्याकुलता’
मैं शहर से दूर, एक झील के किनारे खड़ा हूँ। सूरज ढले यूं तो कुछ ही देर हुई है लेकिन शहर की रौनक से परे, इन इलाकों में शाम कुछ जल्दी गहरा जाती है। पक्षी पेड़ों पर लौट चुके हैं और उनकी चहचहाहट भी अब धीरे-धीरे कम हो रही है। इस वक्त एक खास तरह की शांति वातावरण में घुल रही है। अपने अंदर भी इसी तरह की एक शांति की तलाश में मैं यहाँ आया हूँ।
एक ओर ऊपर आसमान में, पूर्णिमा का चाँद अपनी पूरी खूबसूरती से चमक रहा है, वहीं दूसरी ओर उस चाँद का प्रतिबिंब झील के इस पानी में समाए हुए है। कुछ देर गौर से देखने पर पाता हूँ कि चाँद की खूबसूरती झील के उस पानी में पूरी तरह दिखाई नहीं दी रही। झील के इस पानी में मानो चाँद खुद ही बन रहा है और बिगड़ रहा है। मैं एक बार फिर आसमान में चाँद को देखता हूँ। वहाँ वो बिलकुल ठहरा हुआ, शांत और पूर्ण है। लेकिन यहाँ, झील के पानी में वह बनता-बिगड़ता दिख रहा है। मानो वह व्याकुल हो। इस झील में चाँद के प्रतिबिंब की व्याकुलता देख कर, शांति की तलाश में यहाँ पहुंचा मैं भी व्याकुल हो उठा हूँ।
चाँद क्यूँ व्याकुल है? पूर्ण होने के बाद भी ऐसी क्या वजह होगी कि वो अपने आप में स्थिर नहीं दिख रहा? मैं खुद से सवाल करता हूँ। इस तरह, एक के बाद एक, कई सवाल मेरे अंदर उठ रहे हैं। उन सवालों ने मेरे आस पास एक जाल सा बिछा दिया है। कुछ देर संघर्ष करने के बाद उस जाल से मैं खुद को बाहर निकालता हूँ और कुछ दूरी से उन सब सवालों को देखता हूँ। अब मैं पाता हूँ कि दरअसल वो सब सवाल एक ही थे, बस अलग अलग रूप में मेरे सामने उठ रहे थे।। “तो मूल सवाल क्या है?” मैंने अपने अंदर से आते हुए एक और सवाल को सुना। मूल सवाल यह है कि चाँद, पूर्ण होने के बाद भी व्याकुल क्यूँ है? यह हास्यास्पद है कि मेरे अंदर ही उठे सवाल का जवाब ढूँढता हुआ मैं, अब मूल सवाल को ही जवाब के रूप में खुद को पेश कर रहा हूँ।
अब विचारों की एक शृंखला सी बन रही है। विचारों में खोया हुआ मैं धीरे-धीरे यहाँ से वहाँ टहल रहा हूँ। टहलते हुए मैं झील के किनारे पर आकर खड़ा हूँ। यहाँ से पूरी झील एक ही नज़र में दिख रही है। मेरी नज़र चाँद के प्रतिबिंब को ढूँढने के लिए उस झील की यात्रा पर निकली हैं। हाँ, वो रहा। वहाँ दूर। “वह अब भी व्याकुल है” खुद ही से बुदबुदाते हुए, मैं अपनी नज़रों की वो यात्रा जारी रखता हूँ।
इस खामोश रात में झील के इस पानी में मैं अपना भी प्रतिबिंब पाता हूँ। पर ये क्या! मेरा प्रतिबिंब भी मुझे बनता-बिगड़ता हुआ दिख रहा है। मैं भी व्याकुल हूँ? एक गहरी सांस लेकर खुद को स्थिर करने की कोशिश करता हूँ। नहीं, मेरा प्रतिबिंब अब भी बनता-बिगड़ता हुआ दिख रहा है। अब मैं अपने आप में असहज महसूस कर रहा हूँ। शायद अपनी सच्चाई और उससे उठने वाले कई सवालों से सामना होने के लिए मैं तैयार नहीं था।
विचारों की शृंखला जारी है। शायद इन अंतहीन विचारों से मैं कुछ बौखला गया हूँ, इसलिए मैं स्थिर नहीं हूँ। “लेकिन चाँद? वो किस बात से बौखलाया हुआ है?” – मेरे अंदर से मेरे मन की सतह पर आता हुआ एक और सवाल मुझे कुछ और विचलित करता है। मेरे मन में विचारों की इस उछल-कूद से अब थकने लगा हूँ। अब मैं वापस लौटना चाहता हूँ ताकि खुद को वापस अपनी दिनचर्या में समा सकूँ। वहाँ इस तरह के विचार इतनी तीव्रता नहीं रखते। पर मेरे वहाँ रहते हुए क्या लोग इस “मैं” को कभी पहचान पाएंगे जो प्रतिबिंबों के स्थिर न होने पर विचार करता है? क्या इस बात पर इतना विचार कर पाना सही भी है? जीवन में गति होना कितना ज़रूरी है? लेकिन मैं अपने आप को अक्सर इस तरह की किसी ठहराव वाली जगह की तलाश में पाता हूँ। पर क्या मैं हमेशा इस तरह किसी झील के किनारे ठहरा रहना चाहता हूँ?
विचारों ने अब अपना रास्ता बदल दिया है। हालांकि चाँद के और अपने प्रतिबिंब के स्थिर न होने पर मैं अब भी कुछ विचलित हूँ लेकिन उस विचलन के ऊपर अब विचारों की एक और सतह जमने लगी है। इस तरह, मैं अपने विचारों में भटक चुका हूँ। स्थिरता का वो सवाल अब उतने मायने रखता हुआ महसूस नहीं होता। उसने अपनी तीव्रता खो दी है। इस दौरान उठे सारे विचार भी अब मन में कहीं नीचे दबते से महसूस हो रहे हैं। अब मैं वापस उस स्थिति में लौटना चाहता हूँ, जिसमें मैं आज शाम यहाँ इस झील के किनारे आने से पहले था।
इस झील से और अपने विचारों से दूर, शहर की दिशा में वापसी की ओर मैं अपने कदम उठाता हूँ। धीरे-धीरे मैं उस झील से दूर हो रहा हूँ।
पीछे छूट चुकी उस झील के किनारे खड़ा, अनजाने में अपने विचारों के कंकड़-पत्थर उस झील में फेंकता और इस तरह झील के उस शांत पानी के ठहराव को विचलित करता, मैं, अब वहाँ नहीं हूँ।
पीछे छूट चुकी उस झील के ठहरे हुए पानी में चाँद का प्रतिबिंब अब स्थिर है।
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